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Sukhanzar Foundation

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Munawwar rana biography in hindi

Munawwar rana biography in hindi

Author: Sartaz Razvi | Date: July 19, 2025 | Time: 04:58 PM

मुनव्वर राना: एक शायर, एक विचारक और एक युग का अंत
प्रस्तावना: एक शायर, एक पहचान, एक विरोधाभास
मुनव्वर राना (1952-2024) भारतीय उर्दू साहित्य के एक ऐसे स्तंभ थे, जिन्होंने अपनी कलम से ग़ज़ल की पारंपरिक परिपाटी को एक नई दिशा दी। 26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जन्मे , और 14 जनवरी 2024 को निधन को प्राप्त हुए , राना की पहचान सिर्फ एक शायर के रूप में नहीं थी, बल्कि एक ऐसे कलाकार के रूप में थी जिसने अपने बेबाक अंदाज और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर तीखे विचारों से एक व्यापक पहचान बनाई । जहाँ ग़ज़लें आम तौर पर प्रेम और श्रृंगार के इर्द-गिर्द घूमती हैं, वहीं मुनव्वर राना ने अपनी माँ को अपनी शायरी का केंद्रीय विषय बनाकर एक सार्वभौमिक भावना को अभिव्यक्त किया। उनकी यही अनूठी शैली उन्हें समकालीन उर्दू कवियों से अलग करती है।   

यह रिपोर्ट मुनव्वर राना के जीवन की बहुआयामी शख्सियत को गहराई से समझने का प्रयास करती है। इसका उद्देश्य केवल उनके जीवन की घटनाओं का ब्योरा देना नहीं है, बल्कि उनके साहित्यिक योगदान, उनके बेबाक सार्वजनिक व्यक्तित्व और उनके इर्द-गिर्द पनपे विवादों के बीच के जटिल संबंधों का गहन विश्लेषण करना है। यह रिपोर्ट एक तरफ 'माँ' की ममता को अपनी कलम से जीवंत करने वाले संवेदनशील कवि और दूसरी तरफ सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर मुखरता से अपनी राय रखने वाले निर्भीक व्यक्तित्व के बीच के विरोधाभासों को उजागर करेगी।

प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि: विभाजन की छाया में एक अटूट रिश्ता
मुनव्वर राना का जन्म 26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के एक गाँव में हुआ था । उनके पिता का नाम अनवर राना और माता का नाम आयशा खातून था । उनका बचपन एक ऐसे दौर में बीता, जिसकी छाया 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के दर्द से घिरी हुई थी। यह एक ऐसा समय था जब उनके कई करीबी रिश्तेदार, जिनमें चाचा-चाची और दादी शामिल थीं, और उनके दोस्त भी भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए । हालाँकि, उनके परिवार ने भारत के प्रति अपने गहरे प्रेम और अपनी मिट्टी से अटूट लगाव के कारण यहीं रहने का फैसला किया ।   

उनके पिता का यह निर्णय केवल एक पारिवारिक पसंद नहीं था, बल्कि एक गहरी देशभक्ति और अपनी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य का प्रतीक था । इस ऐतिहासिक घटना ने उनके व्यक्तित्व की नींव रखी। यह निर्णय मुनव्वर राना के भीतर देश के प्रति एक गहरा लगाव पैदा कर गया, जो बाद में उनकी शायरी में "माँ" और "मातृभूमि" (ज़मीन) के रूप में सामने आया। उनकी ग़ज़लों में "माँ" का जिक्र केवल एक व्यक्तिगत और पारिवारिक स्मृति के रूप में नहीं था, बल्कि एक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक के रूप में भी था। उनके शेर, जैसे "यहीं रहूँगा कहीं उम्र भर न जाऊँगा, ज़मीन माँ है इसे छोड़ कर न जाऊँगा" , सीधे तौर पर इस संबंध को दर्शाते हैं। यह बताता है कि उनके लिए "माँ" का प्रेम अपनी मातृभूमि से प्रेम का पर्याय था।   

उनकी शुरुआती शिक्षा रायबरेली में हुई । इसके बाद उनका परिवार कोलकाता चला गया, जहाँ उनके पिता ने ट्रांसपोर्ट का व्यवसाय शुरू किया । कोलकाता में ही मुनव्वर राना ने उमेशचंद्र कॉलेज से अपनी स्नातक की डिग्री प्राप्त की । हालाँकि, कुछ स्रोतों में उनकी "आला तालीम" (उच्च शिक्षा) के बारे में "कोई वाज सबूत" नहीं होने का भी उल्लेख है । यह विरोधाभास उनकी औपचारिक शिक्षा के बारे में एक अस्पष्टता पैदा करता है, लेकिन उनके साहित्यिक कार्यों की गहराई को देखते हुए यह स्पष्ट है कि उनकी शिक्षा केवल औपचारिक डिग्री तक सीमित नहीं थी।   

साहित्यिक यात्रा और काव्यगत विशेषताएँ: ग़ज़ल की परिपाटी से परे
मुनव्वर राना की साहित्यिक यात्रा की सबसे बड़ी विशेषता उनका ग़ज़ल के पारंपरिक स्वरूप को चुनौती देना था। पारंपरिक रूप से ग़ज़ल का विषय 'इश्क़-ए-मजाज़ी' (सांसारिक प्रेम) और 'इश्क़-ए-हक़ीक़ी' (आध्यात्मिक प्रेम) पर केंद्रित होता है। राना ने इस परिपाटी को तोड़ते हुए अपनी ग़ज़लों का केंद्रीय विषय 'माँ' को बनाया । उन्होंने एक बार खुद कहा था कि जब एक मामूली शक्ल की औरत उनकी महबूबा हो सकती है, तो उनकी माँ उनकी महबूब क्यों नहीं हो सकती?   

यह कदम सिर्फ साहित्यिक नवाचार नहीं था, बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन और विचारों का सीधा प्रतिबिंब था। यह दर्शाता है कि उनकी शायरी उनके जीवन और मूल्यों से गहराई से जुड़ी हुई थी। "माँ" जैसे सार्वभौमिक विषय ने उनकी शायरी को उर्दू तक सीमित नहीं रहने दिया, बल्कि हिंदी और अन्य भाषाओं के पाठकों तक भी पहुँचाया । उनकी कविताएँ आम लोगों की जुबान पर चढ़ गईं और सोशल मीडिया पर खूब साझा की जाने लगीं । उनकी लोकप्रियता का यह एक प्रमुख कारण था।   

उनकी "माँ" पर लिखी ग़ज़लों में ममता, त्याग और निस्वार्थ प्रेम की भावनाएँ स्पष्ट रूप से झलकती हैं। उनके कुछ मशहूर शेर इस प्रकार हैं:

"चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है, मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है।" यह शेर माँ को स्वर्ग के समान बताता है, जो उनके आध्यात्मिक महत्व को दर्शाता है ।   

"इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।" यह शेर माँ के निस्वार्थ प्रेम और क्षमाशीलता को दर्शाता है, जो अपने बच्चों की गलतियों पर भी क्रोध के बजाय आँसू बहाती है ।   

"किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई, मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई।" यह शेर एक बेटे के लिए माँ को सबसे अनमोल संपत्ति और विरासत के रूप में चित्रित करता है ।   

मुनव्वर राना ने ग़ज़लों के अलावा संस्मरण भी लिखे थे । उनकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनकी प्रमुख कृतियों में 'माँ', 'ग़ज़ल गाँव', 'पीपल छाँव' और 'नीम के फूल' शामिल हैं । उनकी कविता 'शाहदाबा' के लिए उन्हें सन् 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।   

पुरस्कार और सम्मान: पहचान और विरोध की पराकाष्ठा
मुनव्वर राना का जीवन पुरस्कारों और सम्मानों से भरा रहा। उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। उनके कुछ प्रमुख पुरस्कारों की सूची निम्नलिखित है:

तालिका 1: मुनव्वर राना के प्रमुख पुरस्कार और सम्मान

अवार्ड का नाम    वर्ष    संस्था/स्थान
साहित्य अकादमी पुरस्कार    2014    भारत सरकार
अमीर ख़ुसरो अवार्ड    2006    इटावा
कविता का कबीर सम्मान उपाधि    2006    इंदौर
मीर तक़ी मीर अवार्ड    2005    -
शहूद आलम आफकुई अवार्ड    2005    कोलकाता
ग़ालिब अवार्ड    2005    उदयपुर
डॉ॰ जाकिर हुसैन अवार्ड    2005    नई दिल्ली
सरस्वती समाज अवार्ड    2004    -
माटी रत्न अवार्ड    2012    शहीद शोध संस्थान

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उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का निर्णय लिया। उन्हें यह पुरस्कार 2014 में उनकी कविता 'शाहदाबा' के लिए मिला था । एक समय में उन्होंने सम्मान लौटाने वाले साहित्यकारों को 'थके हुए लोग' कहा था । लेकिन बाद में, उन्होंने खुद ही एक टीवी चैनल के लाइव शो में 1 लाख रुपये का चेक और शील्ड वापस करने का ऐलान किया ।   

पुरस्कार वापसी का यह निर्णय देश में 'बढ़ती असहिष्णुता' के खिलाफ एक प्रतीकात्मक विरोध था। यह दादरी में अखलाक की हत्या और गोविंद पनसारे व कलबुर्गी जैसे लेखकों की हत्या के विरोध में शुरू हुए एक व्यापक साहित्यिक आंदोलन का हिस्सा था । लाइव टीवी पर पुरस्कार लौटाने का उनका निर्णय महज एक घटना नहीं था, बल्कि एक सार्वजनिक घोषणा थी, जिसने उनके कलाकार व्यक्तित्व से हटकर एक राजनीतिक और सामाजिक रूप से जागरूक नागरिक की भूमिका को दर्शाया। यह बताता है कि मुनव्वर राना ने अपनी राय को सार्वजनिक मंच पर मुखरता से व्यक्त करने में कभी संकोच नहीं किया।   

सार्वजनिक व्यक्तित्व और विवाद: एक बेबाक और निर्भीक अंदाज़
मुनव्वर राना अपने बेबाक और निर्भीक अंदाज़ के लिए जाने जाते थे, जिसकी झलक न केवल उनकी शायरी में, बल्कि उनके सार्वजनिक बयानों में भी मिलती थी । उनके ये बयान अक्सर सुर्ख़ियों में रहे और कई बार विवादों को जन्म दिया।   

उनके सबसे चर्चित और विवादास्पद बयानों में से एक फ्रांस में पैगंबर मुहम्मद के आपत्तिजनक कार्टूनों पर हुए हमले को सही ठहराना था। 2020 में, उन्होंने तर्क दिया कि 'अगर मज़हब माँ के जैसा है' और कोई आपकी माँ या धर्म का बुरा कार्टून बनाता है तो व्यक्ति ऐसा करने को मजबूर है । इस बयान के लिए लखनऊ में उनके खिलाफ सामाजिक वैमनस्य फैलाने और शांति भंग करने के आरोप में एफआईआर भी दर्ज की गई थी । इसके अतिरिक्त, उन्होंने राजनीतिक मुद्दों पर भी तीखी टिप्पणियाँ कीं, जिसमें उत्तर प्रदेश के तत्कालीन चुनाव से पहले योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री मोदी पर की गई विवादास्पद टिप्पणियाँ भी शामिल थीं ।   

यह उनके व्यक्तित्व में एक गहरा विरोधाभास प्रस्तुत करता है। एक तरफ, उन्होंने अपनी शायरी में "माँ" की ममता, क्षमाशीलता और त्याग को चित्रित किया , वहीं दूसरी तरफ, वही व्यक्ति हिंसा को यह कहकर सही ठहराता है कि यह 'गुस्से में' की गई कार्रवाई है । यह विरोधाभास उनकी दो अलग-अलग पहचानों को सामने लाता है—एक निजी, संवेदनशील शायर और एक सार्वजनिक, राजनीतिक कार्यकर्ता। यह संभव है कि वे "माँ" के प्रेम को धर्म और राष्ट्र के प्रति प्रेम के साथ जोड़कर देखते थे, और इन विषयों पर किसी भी तरह के अपमान को "माँ" के अपमान के समान मानते थे। यह दृष्टिकोण उनके व्यक्तित्व की जटिलता और उनके विचारों की गहराई को उजागर करता है।   

अंतिम वर्ष और विरासत: बीमारी, निधन और अमरता
मुनव्वर राना का जीवन के अंतिम वर्ष स्वास्थ्य संबंधी गंभीर चुनौतियों से भरे रहे। वे लंबे समय से कई बीमारियों से जूझ रहे थे, जिनमें गले का कैंसर, किडनी की गंभीर बीमारी और फेफड़ों की गंभीर बीमारी (Chronic Obstructive Pulmonary Disease - COPD) शामिल थीं । पिछले दो साल से उनकी किडनी खराब होने के कारण उनका लगातार डायलिसिस चल रहा था ।   

उनका निधन 14 जनवरी 2024 को लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में 71 वर्ष की उम्र में हुआ । उनकी मृत्यु का कारण दिल का दौरा (कार्डियक अरेस्ट) था । परिवार में उनकी पत्नी, पाँच बेटियां और एक बेटा है । हालाँकि, कुछ स्रोतों में चार बेटियों का भी उल्लेख है । उनके बेटे तबरेज और बेटी फौजिया के बयानों से यह स्पष्ट होता है कि वे लंबे समय से बीमार थे और उनकी हालत लगातार बिगड़ रही थी । उनकी मृत्यु किसी एक बीमारी के कारण नहीं, बल्कि कई पुरानी और गंभीर बीमारियों के संचयी प्रभाव के कारण हुई, जो अंततः दिल के दौरे का कारण बनी।   

उनका निधन उनके जीवन का एक शारीरिक अंत था, लेकिन उनकी साहित्यिक विरासत, खासकर 'माँ' पर लिखी उनकी शायरी, उन्हें अमर बना देगी। उनके काम की प्रासंगिकता और लोकप्रियता, जो उर्दू से परे हिंदी भाषियों तक भी पहुँची, यह सुनिश्चित करती है कि जब-जब माँ के प्रेम और त्याग पर कोई कविता कही जाएगी, मुनव्वर राना की शायरी को हमेशा याद किया जाएगा । उनकी विरासत उन लाखों लोगों के दिलों में जीवित रहेगी, जिन्होंने उनकी ग़ज़लों में अपनी माँ की छवि देखी।   

निष्कर्ष: एक शायर, एक विचारक और एक युग का अंत
मुनव्वर राना एक साधारण ग़ज़लकार नहीं थे, बल्कि एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से समाज से संवाद किया। उनकी विरासत मुख्य रूप से 'माँ' पर उनकी शायरी में निहित है, जिसने ग़ज़ल की दुनिया को एक नई दिशा दी और एक सार्वभौमिक भावना को अभिव्यक्ति दी। उनकी पहचान एक संवेदनशील कवि और एक विवादास्पद सार्वजनिक व्यक्तित्व के जटिल मिश्रण में निहित है। उन्होंने अपनी कला में प्रेम और कोमलता को दर्शाया, जबकि अपने बयानों में तीखेपन और निर्भीकता को नहीं छोड़ा।

मुनव्वर राना को उनकी कला और उनके बयानों, दोनों के साथ ही समझा जाना चाहिए। वे अपनी कविता और जीवन के बीच के विरोधाभासों के कारण ही इतने यादगार और महत्वपूर्ण बने रहेंगे। उनका जीवन यह दर्शाता है कि एक कलाकार अपनी कला में कितना भी संवेदनशील हो सकता है, लेकिन समाज के मुद्दों पर उसकी चुप्पी ज़रूरी नहीं है। उन्होंने अपनी कलम और जुबान, दोनों से अपने विचारों को व्यक्त किया और इस तरह एक युग का अंत किया, जिसने अपनी शर्तों पर जीवन जिया और कला का सृजन किया।

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